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Dastak India > Home > देश > प्लीज, थोड़ा रोइए ! बहुत कुछ मर रहा है
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प्लीज, थोड़ा रोइए ! बहुत कुछ मर रहा है

dastak
Last updated: April 14, 2018 9:53 pm
dastak
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जितेंद्र भट्ट 
(((लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और इंडिया टीवी में कार्यरत हैं…)))

वो एक मंदिर ही था।

जहां उस बच्ची की सिसकियों ने दम तोड़ा।

उस आखिरी लम्हे से पहले वो कई बार चिल्लाई। मैंने उस लम्हे को नहीं देखा। पर मुझे यकीन है, वो जरुर चिल्लाई होगी। जिस तरह उसके प्राइवेट पार्ट को कुरेदा गया। उसके शरीर को नोंचा गया। चेहरा पत्थर की चोट मारकर कुचल दिया गया। कौन नहीं चिल्लाएगा? वो जरुर चिल्लाई होगी।

धर्म भी था, उस चीख में शामिल। बड़ी ताज्जुब की बात है।

चीख, क्या इतनी गूंगी होती है कि उसे कोई सुन ही नहीं सका? वो सात दरिंदे, तो बहरे ही रहे होंगे। पर उस मंदिर में कुछ पुतले भी तो थे। जिन्हें सब भगवान कहते हैं। क्या उन्होंने भी नहीं सुनी वो चीख? तो भगत सही कहता था। उसने सही किया, जो वो नास्तिक बन गया। कठुआ के भगवान ने भगत की कही को सच साबित कर दिया।

भगत ने यही तो कहा था, “अगर आपका विश्वास है कि एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक और सर्वज्ञानी ईश्वर है, जिसने दुनिया की रचना की, तो कृप्या करके मुझे यह बताएं कि उसने यह रचना क्यों की?कष्टों और संतापों से पूर्ण दुनिया – असंख्य दुखों से ग्रसित। एक भी आदमी पूरी तरह संतुष्ट नहीं है। कृप्या यह न कहें कि यही उसका नियम है। यदि वह किसी नियम से बंधा है, तो वो सर्वशक्तिमान नहीं है।“

तो कैसे मानूं? कठुआ के उस मंदिर में बसी मूर्तियों में उस रोज ईश्वर था!अगर वो होता, तो उस बच्ची की चीख, दर्द पर उसका दिल न पसीजता भला? अगर वो होता, तो भला अपनी मासूम बेटी को हैवानों से बचाने न आता भला?

सच कहा, तुमने भगत। अगर यही उसका नियम है। यदि वह किसी नियम से बंधा है, तो वो सर्वशक्तिमान नहीं है। नहीं है वो मेरा ईश्वर। मैं उस ईश्वर की सत्ता को नकारना चाहता हूं। मैं भी कहना चाहता हूं। मैं नास्तिक हूं।

ईश्वर नाम की उस कल्पना से लड़ना आसान है। पर ईश्वर से भी मजबूत बन गई सत्ता और इसके इर्दगिर्द सिमटे लोगों से कैसे लड़ेगा कोई? वो भी तब जब धर्म के कुछ ‘ठेकेदारों’ से इनकी तगड़ी दोस्ती हो गयी है। धर्म,इनकी सत्ता को आगे बढ़ाता है। और इनकी सत्ता, धर्म को। और इसके बीच चीख उभरती है। दर्द पनपता है। जिस तरह कठुआ में हुआ।

दर्द। दर्द की भी इंतेहा होती है। शायद उस बच्ची ने उस इंतेहा को छू लिया होगा। वो दर्द तो उन आठ दरिंदों ने भी देखा ही होगा। जिन्हें हम आरोपी कह सकते हैं। पर आंखों पर धर्म की काली छाया पड़ जाए, तो दिन में भी अंधेरा ही दिखेगा। शायद वो अंधे हो गए होंगे, सो दर्द नहीं दिखा होगा। पर उस ईश्वर का क्या करें? जो कहने को हर जगह व्याप्त है। और खासतौर से कठुआ के उस मंदिर में भी रहा होगा? मुझे तो अब यकीन नहीं है।

ईश्वर शायद सोया होगा? इसलिए इंसानियत भी उस रोज सो गयी। 12 जनवरी का दिन था। जब 8 साल की बच्ची का अब्बा करीब 48 घंटे तक बेटी को तलाश करने के बाद मायूस होकर पुलिस के पास पहुंचा। हीरानगर थाने में केस दर्ज कराया गया। बेजार पिता ने पुलिस को बताया कि बेटी दो दिन पहले 10 जनवरी के रोज दोपहर करीब साढ़े बारह बजे घोड़ों को चराने पास के जंगल गई थी। दो बजे तक बेटी को जंगल में देखा गया। शाम करीब चार बजे घोड़े घर लौट आए। पर बेटी नहीं लौटी।

बेटी घर नहीं पहुंची, तो सबसे खूब ढूंढा। परिवार कहता है, वो अल्ला का नूर थी। मां और पिता की आंखों के आगे अंधेरा छा गया होगा। मन आशंकाओं से भर गया होगा। कहीं कोई जानवर बेटी को उठा तो नहीं ले गया? आशंका सच साबित हुई। वो जानवर ही थे। अब्बू की एफआईआर दर्ज होने के पांचवें दिन 17 जनवरी को रासना के जंगल में एक बच्ची का शव मिला। वो उन्हीं  की बेटी थी।

आरोपियों ने आठ साल की उस बच्ची को इसलिए अगवा किया। रेप किया। हत्या कर दी। क्योंकि वो बकरवाल समुदाय से थी और एक मुसलमान थी। आरोपी बकरवाल समुदाय से अपनी नफरत का हिसाब चुकता करना चाहते थे। नफरत के इस हिसाब किताब में दो पुलिसवाले भी शामिल हो गए। सिर्फ डेढ़ लाख रुपये में एक एसआई और एक हेड कॉन्स्टेबल का ईमान बिक गया। इंसानियत तो इनमें से किसी के पास भी नहीं थी, शायद। अगर होती, तो वो बच्ची बच जाती।

सात दिन में आठ साल की उस बच्ची के साथ न जाने कितनी बार रेप हुआ। उसे नशे की दवाईयां खिलाकर बार बार रेप किया। पिटाई की गयी। हैवानियत की गयी। आरोपी पकड़े गए। चार्जशीट भी हो गयी। लेकिन एक सियासी पार्टी से संबंध रखने वाले कठुआ के कुछ नेता,इनमें कुछ सरकार चलाते हैं। इन नेताओं और मंत्रियों के पीछे चलने वाले उनके समर्थक। उन दरिंदों को आरोपी नहीं मानते। बहुत सारे वकील भी हैं, जो दरिंदों को गुनहगार मानने से इनकार कर रहे हैं। यहां तक की इलाके का बार एसोसिएशन भी खुलकर आरोपियों के पक्ष में खड़ा है।

ये एक नहीं है। कई लोग हैं। सैकड़ों हैं। बात धर्म से जुड़ी है, तो ये ईश्वर को जरुर मानते होंगे। ईश्वर की कई दिनों की पूजा के बाद, अगर इनके दिल में इंसानियत मुर्दा है। तो फिर मैं उस ईश्वर को क्यों मानूं भला?

वो मरने वाली आठ साल की बच्ची थी। नाम? नाम में क्या रखा है? नाम तो कुछ भी हो सकता है। दुनिया में लड़कियों के करोड़ों नाम हैं। आप जिस नाम से चाहें, उसे बुला सकते हैं। आपकी बेटी का जो नाम है, आप उस बच्ची को उस नाम से भी पुकार सकते हैं। आप कठुआ पहुंचकर जितना भी चीखें, चिल्लाएं। कितनी ही बार उस बच्ची का नाम पुकारें। वो अब जवाब नहीं देगी। शायद सही हुआ। जो वो बच्ची मारी गयी। हैवानों की इस दुनिया में जीकर भी क्या कर लेती वो?

उन दरिंदों के लिए, वो बच्ची हवस थी। नफरत पालने का एक जरिया थी। कुछ के लिए मर चुकी बच्ची राजनीति और सत्ता का एक औजार बन गयी है। नन्हीं बच्ची, न नफरत का ‘न’ जानती थी। न राजनीति का‘र’ और न ही धर्म का ‘ध’ समझती थी। पर नफरत, राजनीति और धर्म तीनों मिलकर बच्ची को खा गए।

यकीन मानिए। कहने को बहुत कुछ है। पर माफ कीजिए। अभी थोड़ा रोना चाहता हूं।

#JusticeForKathuaGirl

“ये लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में सभी सूचनाएं लेखक द्वारा दी गई हैं, जिन्हें ज्यों की त्यों प्रस्तुत किया गया हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति दस्तक इंडिया उत्तरदायी नहीं है।”

 

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